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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं


स्वयं लक्ष्मीजीके मुखसे सुन लीजिये कि वे कहाँ रहना पसंद नहीं करतीं। कौन दरिद्र रहा करता है? लक्ष्मीजी कहतीं है-

मिथ्यावादी च यः शश्व-
दनध्यायी च यः सदा।
सत्त्वहीनश्च दुश्शीलो
न गेहं तस्य याम्यहम्।।

-मिथ्यावादी, धर्म-ग्रन्थोंको कभी न देखनेवाला, पराक्रमसे हीन, खोटे स्वभावका-ऐसे पुरुषोंके घर मैं नहीं जाती।

सत्यहीनः स्थाप्यहारी मिथ्यासाक्ष्यप्रदायकः।
विश्वासघ्नः कृतघ्नो वा यामि तस्य न मन्दिरम्।।

-सत्यसे हीन, किसीकी धरोहर मारनेवाले, झूठी गवाही देनेवाले, विश्वासघात करनेवाले तथा कृतघ्न पुरुषोंके घरमें मैं नहीं जाती।

चिन्ताग्रस्तो भयग्रस्तः शत्रुप्रस्तोऽतिपातकी।
ऋणअस्तोऽतिकृपणो न गेहं यामि पापिनाम्।।

-चिन्ता-ग्रस्त, भयमें सदा डूबे हुए, शत्रुओंसे घिरे, अत्यन्त पातकी, कर्जदार और अत्यन्त कंजूस पापियोंके घर मैं नहीं जाती। फलतः वे जन्मभर दीन-हीन बने रहते हैं।

दीक्षाहीनश्च शोकार्तों मन्दधीः स्त्रीजितः सदा।
न यास्यामि कदा गेहं पुंश्चल्याः पतिपुत्रयोः।।

मैं दीक्षाहीन, शोक-ग्रस्त, मन्दबुद्धि, सदा स्त्रीके गुलाम, व्यभिचारिणीके पति और पुत्रके परिवारमें कभी नहीं जाती। अतः मनुष्यको चाहिये कि तुरंत इन दुर्गुणोंको दूर कर समृद्धिका पथिक बने।

यो दुर्वाक् कलहाविष्टः
कलिरस्ति सदालये।
स्त्रीप्रधाना गृहे यस्य
यामि तस्य न मन्दिरम्।।

-कटुभाषी, कलहप्रिय, जिस परिवारमें निरन्तर कलह होती रहे, जिसके यहाँ स्त्रीकी ही चलती रहे-ऐसे परिवारमें मैं नहीं जाती।

यत्र नास्ति हरेः पूजा
तदीयगुणकीर्तनम्।
नोत्सुकस्तत्प्रशंसायां
यामि तस्य न मन्दिरम्।।

-जिस घरमें भगवान्की पूजा और कीर्तन नहीं होते (सात्त्विक वातावरणका प्रभाव नहीं रहता) जिसके व्यक्ति भगवान्की प्रशंसामें उत्सुक नहीं होते, वहाँ मै नहीं जाती।

श्रीमहालक्ष्मीजीको प्रसन्न करनेके लिये दुर्गुणोंसे मुक्त रहना चाहिये। हर प्रकारकी चारित्रिक गन्दगीसे लक्ष्मीजीको घृणा है। बुरी आदतों, सड़े-दिमाग, छल-फरेब करने और व्यसन-व्यभिचारमें फँसे रहनेवाले व्यक्तियोंसे लक्ष्मीदेवी अप्रसन्न रहती हैं। वे स्वयं कहती है-

नाकर्मशीले पुरुषे वसामि
न नास्तिके सांकरिके कृतन्घे।
न भिन्नवृत्ते न नृशसवणें
न चापि चौरे न गुरुव्षनम्ने।।

-मैं अकर्मण्य, आलसी, नास्तिक-परलोक और ईश्वरको न माननेवाले, वर्ण-संकर-जारज, कृतन्घ-उपकारको भुला देनेवाले, अपनी बातपर स्थिर न रहनेवाले, कठोर वचन बोलनेवाले, चोर और गुरुजनोंके प्रति अविनीत ईर्ष्या-द्वेष तथा डाह रखनेवाले पुरुषोंमें कभी नहीं रहती।

-मैं ऐसे पुरुषोंके पास कभी नहीं रहना चाहती जिनमें तेज, बल और आत्मगौरवका सर्वथा अभाव रहता है। जो लोग थोड़ेमें ही कष्टका अनुभव करने लगते हैं, जरा-जरा-सी बातपर क्रोध करने लगते है तथा जिनके मनोरथ कभी कार्य-रूपमें परिणत नहीं होते, सदा गुप्त ही बने रहते हैं, उनके पास भी मैं कभी नहीं जाना चाहती।

-इसके अतिरिक्त मैं उस व्यक्तिके भी पास नहीं रहती, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता तथा जिसका अपने पुरुषार्थमें विश्वास नहीं है। मैं उन लोंगोंके पास भी अधिक नहीं रहना चाहती, जो थोड़ेमें ही संतोष कर लेते हैं।

ऊपर लक्ष्मीके प्रिय पुरुषोंके विषयमें अनेक उपयोगी बातें कही गयी हैं। कुछ त्रुटियाँ तो ऐसी हैं, जो समृद्धि चाहनेवालोंको तुरंत त्याग देनी चाहिये। नीतिमें अनेक ऐसी उक्तियाँ आयी हैं। एक उक्ति देखिये-

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं
बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं
विमुच्चति श्रीरपि चक्रपाणिनम्।।

-गन्दा वस्त्र पहिननेवाले, दाँतोंको साफ न रखनेवाले, बहुत अधिक भोजन करनेवाले, निष्ठुर भाषण करनेवाले तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्तके समय सोनेवाले व्यक्तिको, यदि वह स्वयं विष्णु भी हों तो लक्ष्मीजी परित्याग कर देती हैं।

तात्पर्य यह कि धन-सम्पदा-ऐश्वर्य उन स्वच्छ, सक्रिय और उद्योगी व्यक्तियोंके पास रहते हैं जो कर्तव्यशील है, आलस्यमें पड़े नहीं रहते। लक्ष्मीजी गन्दे, पेटू कटुवादी, आलसी और अधिक सोनेवालेको त्याग देती हैं। नारीके लिये भी लक्ष्मीजीने कुछ गुणोंकी चर्चा की है। जो स्त्रियाँ लक्ष्मीजीको अप्रिय हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं-

प्रकीर्णभाण्डान्यनपेक्ष्यकारिणीं
सदा च भर्तुः प्रतिकूलवादिनीम्।
परस्य वेश्माभिरतामलज्जा-
मेवविधानां परिवर्जयामि।।

-लक्ष्मीजी उन स्त्रियोंके निकट नहीं रहना चाहतीं जो अपनी गृहस्थीके सामान-वस्त्र-पात्रादिको जहाँ-तहाँ बेढंगे तरीकेसे छितराये रहती हैं, चीजें ठिकाने नहीं रखतीं। उन्हें वे भी स्त्रियाँ बहुत अप्रिय हैं, जो सदा पतिके प्रतिकूल बातें कहकर दुःख देती हैं। जिस स्त्रीका मन सदा दूसरेके घरमें लगता है, जो निर्लज्ज रहती हैं, उसके पास भी उन्हें जानेमें संकोच रहता है। साथ ही उन्हें उन स्त्रियोंसे भी बड़ी चिढ़ है, जो पापपरायणा, अपवित्र, गन्दी, चोर, अधीर, झगड़ालू, सदा सोनेवाली तथा उनींदी रहनेवाली हैं। अतः लक्ष्मीजीकी प्रिय पात्र बननेके लिये स्त्रियोंका आचरण पवित्र और वृत्तियाँ सात्त्विक होनी चाहिये।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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